वो पतरातू के दुर्गा पूजा की यादें।


सबसे पहले आपको दुर्गा पूजा की हार्दिक शुभकामनाएं!

🌿 सुदेश कुमार 

बुराई पर अच्छाई की जीत इनके मतलब को समझने में बरसों लगे मगर आज भी अपूर्ण हैं। सबने अलग-अलग स्थितियों में इसे देखा होगा मगर एक पूरा समाज जो पतरातू में बसता था सबने कमोबेश एक ही दुर्गा पूजा को देखा है जो लगभग महीने भर पहले से शुरू हो जाती थी और रोमांच पे रहा करती थी।


श्रमकल्याण, पंचमन्दिर, हनुमानगढ़ी, शाहकॉलोनी, न्यूमार्केट, जनतानगर ये 6 गढ़ होते थे। बारिश के बाद पूरे पतरातू में हरियाली बिखरी होती थी और मंडप में मूर्तिकार आहिस्ता-आहिस्ता सूखी लकड़ी के फ्रेम पर पुआल बाँधना शुरू कर देते थे फिर कई परतों में मिट्टी चढ़ाई जाती थी। बालमंडली में कौतूहल के साथ चर्चा का विषय रहता था कि आज मूर्ति में क्या बन गया है?

पूजा मंडप में लकड़ियों की ठक-ठक को सुनने और देखने के लिए कई बार खिड़कियों पर चढ़ जाया करते थे तो कई बार बड़े भाई अंदर ले जाकर दिखा दिया करते थे। हर गतिविधि का मुआयना करते थे और बाहर दोस्तों में चर्चा करते थे।

स्कूल की छुट्टी लगभग 6 से 8 दिन पहले हो जाया करती थी और कपड़े खरीदने के लिए न्यू-मार्केट जाने के रट में शाम गुजरने लगती थी। खरीददारी में आज के ऑनलाइन जमाने मे वो आनंद नहीं है जो उस समय मे हुआ करता था अब हर महीने खरीद लिया जाता है। तब स्कूल ड्रेस को छोड़कर नए फैंसी कपड़े दशहरा और होली के अलावे शायद किसी शादी-ब्याह में ही नसीब हुआ करते थे।

बहरहाल कपड़ों से बाहर आते हैं, घर-घर जा कर चंदा कलेक्शन का दौर था उत्साह पूरे चरम पर हुआ करता था। इंतजार रहता था कि कब ढाकी आएगा और नाच-नाच कर ढोल बजायेगा? पूजा पंडाल के सामने कुछ दुकान लगा करती थीं जिससे हर साल दो चीजें ख़रीदी जाती थीं एक 8 से 10 रुपए वाली पिस्टल और दूसरी मुर्गा छाप पटाका।

10 पैसे की बारूद वाली लड़ी टिकिया 5 पैसे की आती थी मगर दाम हर चीज के पूछा करते थे और दशमी का इंतजार करते थे क्योंकि उस वक्त कुछ सस्ती मिल जाती थी चीजें।

सबसे ज्यादा मजा उस कांच के बगुले को  देखने मे आता था जो बारी-बारी से पानी पिया करता था। कुल 5 से दस रुपए रोज मिला करते थे थोड़ा मक्खनबाजी कर लिए तो बड़े भाई-बहन 2 से 5 रुपए दे दिया करते थे। जिनका हिसाब गोलगप्पे, मटर-छोले और समोसे में लग जाता था।

पिस्टल वाली टिकिया अपने रोड में घुसते ही कुछ फिल्मी अंदाज में चलाया करते थे और गैंग बना कर हाफ पैंट पहने हुए विरोधी गुट के पैरों पर।

सभी मंडप के पास खिचड़ी का भोग लगता था और लाइन में बिना मारा-मारी करके लेते थे पहली बार मे तो टेस्ट नहीं आता था गर्मा-गर्म खाने की जल्दी रहती थी मगर दूसरे तीसरे बार मे भरपुर आनंद आता था। 

रोज का एक ही रूटीन होता था सुबह पुष्पांजलि के बाद दुकान के सामने बल्ली पर ठुड्ड़ी टिका कर खिलौने देखना और 50 पैसे की टिकिया खरीद कर पिस्टल में लोड करके रखना। शाम 3 बजे से हर रोज एक सेट रुट पर घूमने निकलना। सप्तमी, अष्टमी और नवमी पूरे मस्ती का वक्त होता था और दसमी में विसर्जन का अद्भुत डांस......फिल्मी गानों पर सब के सब ट्रक के आगे नाच रहे होते थे और हम बच्चे बुझे मन से दीपावली के सपने संजो रहे होते थे।

  • वो पतरातू के दिन बस अब हमारे दिल में बसते हैं।

- गोपाल (93 बैच)

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