हाई स्कूल की वो लाल ईंटों वाली पुरानी बिल्डिंग अब भी जस की तस खड़ी है। दीवारों पर समय की दरारों ने कब्ज़ा कर लिया है लेकिन दिल में जो यादें हैं वो आज भी नई लगती हैं। दोपहर की क्लास बंक कर के मैदान में बैठना, भुट्टा खाते हुए दुनिया को सुधारने की बातें करना और सबसे बढ़कर वो दोस्ती जो किसी भी नेटवर्क से ज़्यादा मजबूत थी।
उन दिनों न डेटा प्लान था, न ऑनलाइन स्टेटस बस एक कॉन्टैक्ट था — दिल का।
लगभग ढाई-तीन दशकों पहले स्कूल टाइम खत्म हुआ, हमारे कमाने-खाने के रास्ते अलग हो गए, शहर बदल गए और अब... सिर्फ ऑनलाइन प्रोफाइल है। मगर मन का क्या करें... वो भी कोई ऐप है क्या, जो लॉगआउट हो जाए?
हर बार जब फोन हाथ में लेता हूँ, सोचता हूँ — "एक कॉल करूँ?"
फिर उँगलियाँ कांप जाती हैं। सिर्फ प्रोफाइल पिक पर रुक जाती हैं और वहीं रुक जाती हैं उम्मीदें भी। बातचीत — typing... पर अटकी रहती है और अक्सर जवाब बिना रिप्लाई के बस "Seen" के दो नीले टिक...
एक दिन हिम्मत कर के मैसेज कर ही दिया: "मिलना कभी, बहुत दिन हो गए।" मेरा मैसेज तो सीन हुआ पर जवाब नहीं आया।
दिन बीतते गए। मैंने भी जैसे मान लिया था कि पुरानी यादें भी शायद "डेटा लिमिट" की तरह होती है। फिर एक शाम, एक रीयूनियन की खबर आई। "तो ग्रुप में मैसेज आया कि फिर वहीं से शुरू करते हैं जहाँ सिग्नल छूट गया था!" बस बातचीत फिर से शुरू हो गई — बिना “सिग्नल कवरेज” के इंतज़ार के। कभी-कभी, वाक़ई — एक कॉल या मैसेज हमारे एहसासों को डायल करने की काबिलियत रखता है।"
☘️ सुदेश कुमार