पढ़ाई का नाटक

हमारा घर एक नंबर रोड पर पोस्ट ऑफिस के पास था — वही सड़क जहाँ शाम के वक़्त फूलों की हल्की-सी खुशबू हवा में घुल जाती थी। सुबह मेरी नींद अक्सर छत पर फुदकते कबूतरों की गुटरगूं से खुलती, तो शामें स्कूल के मैदान में दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक में गुम हो जाती। इन सारे रोज़मर्रा के लम्हों के बीच हफ्ते में एक दिन ऐसा आता जिसका डर मुझे हफ्ते भर सताता — 'ट्यूशन टेस्ट' का दिन।



उस दिन अलार्म बजने से भी पहले मैं जाग जाता। जूतों के फीते कसते वक्त दिल धड़कता कि कहीं तैयारी कम न रह जाए। ट्यूशन क्लास में सर की सख़्त आवाज़, प्रश्न-पत्रों का गुजरना और इंतज़ार कि मेरा नाम पहले न पुकारा जाए — सब एक अजीब से तनाव में बदल जाता। सवाल मुश्किल नहीं होते थे लेकिन पढ़ने में मन कहाँ लगता था! दोस्ती में नंबर की होड़ थी — कौन सबसे आगे निकलेगा, किसका नाम सबसे ऊपर आएगा। टेस्ट ख़त्म होते ही बाहर हमलोग अपने-अपने रिजल्ट को छुपाते या एक दूसरे से बात करते — "आज सर ने मेरी खूब तारीफ की," "मैं तो रह गया यार, तुम बताओ!"


घर लौटते ही एक नया ड्रामा शुरू हो जाता — पढ़ाई का नाटक! जैसे ही पापा की स्कूटर की आहट आती, मैं किताब लेकर गंभीर मुद्रा में बैठ जाता, मानो बहुत बड़ा पढ़ाकू हूँ। कई बार पापा मुस्कुराकर कहते, “बेटा, इतनी देर पढ़ेगा तो सीधा फॉरेन यूनिवर्सिटी चला जाएगा!” मैं ऊपर से मुस्कुरा देता मगर अंदर ही अंदर डरता रहता कि पापा को पता न चल जाए कि किताब के बीच दरअसल मैं कॉमिक्स पढ़ रहा हूँ।


सर्दियों की दोपहरें खास होतीं — छत के एक कोने में पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठ कर मैं पढ़ने का नाटक करता और धूप सेंकता। वहाँ मैं अपने सपनों की दुनिया बुनता — कभी खुद को कुछ बनने का सपना देख लेता। पर तभी घर के अंदर से पापा की आवाज़ आती — “सुदेश! खाना ठंडा हो जाएगा…” और मैं फिर आज में लौट आता — अपने ख्वाब समेटता, किताब और कॉमिक्स दोनों लेकर नीचे उतर आता।


यह थी बचपन की यादों की एक झलक, मासूम चिंताएँ और सपनों से भरे दिन — जो आज भी याद आते हैं तो चेहरे पर अपने आप मुस्कान आ जाती है।


☘️ सुदेश कुमार

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