पतरातु थर्मल पावर स्टेशन के ऐतिहासिक पन्ने

 हरी-भरी घाटियों के बीच जहाँ नलकारी नदी अपनी धुन पर बहती है — वहीं 1960 के दशक में भारत ने एक नया सपना देखा। यह सपना था बिजली का, उस शक्ति का जो अँधेरे घरों को रोशन कर सके, फैक्ट्रियों की मशीनें चला सके और रेल की पटरियों पर इंजनों को गरजने की ताकत दे सके।



पतरातु थर्मल पावर स्टेशन सिर्फ़ कोई साधारण प्रोजेक्ट नहीं था। यह भारत और सोवियत संघ की दोस्ती की एक मिसाल था। 1966 से 1972 के बीच वहाँ छह बड़े रूसी यूनिट लगाए गए। रूस के तगानरोग (Taganrog) ने भारी-भरकम बॉयलर बनाए जो कोयले को निगलकर भाप में बदलते और पूरे प्लांट को पावर देते। लेनिनग्राद की मशहूर कंपनी LMZ ने टर्बाइन दिए — इतने चमकदार और शक्तिशाली कि लगता था जैसे ये खुद बिजली की धुन पर डांस कर रहे हों। और आख़िर में आए इलेक्ट्रोसिला (Electrosila) के जेनरेटर जिन्हें देखकर लगता था मानो लोहे का धड़कता हुआ दिल हो।


1972 तक सभी छह यूनिट गूंजने लगे। रात में उनकी चिमनियों से उठता लाल और सफेद प्रकाश मानो तारों से मुक़ाबला करता। कोयले से भरी मालगाड़ियाँ लगातार इन बॉयलरों को फीड करती थी। लोगों ने देखा कि कैसे आसमान की ओर सफ़ेद भाप के बादल फूट रहे हैं — ऐसे जैसे कोई नया युग शुरू हो गया हो। रूसी इंजीनियर और भारतीय इंजीनियर कंधे से कंधा मिलाकर काम करते। भाषा अक्सर रुकावट बनती, पर मशीनें अपनी ख़ुद की भाषा बोलती थीं — टॉर्क और करंट की भाषा। धीरे-धीरे रूसी किताबें हिंदी में अनुवाद हुईं लेकिन असली रिश्ता तो मिलकर काम करने से बना।


आज पुराने प्लांट की गाथा वहीं रह गई और अब पतरातु एक नवीनीकरण के दौर से गुजर रहा है। वे सिर्फ़ मशीनें नहीं थीं बल्कि भारत के औद्योगिकरण के दौर की निशानी थीं — जिसने पतरातु को एक नई पहचान दी।


👨‍🏫 सुदेश कुमार 

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