इंडो आसाही ग्लास कंपनी (IAG), भुरकुंडा

वो था 1980-90 का दौर — हमारे स्कूल के सुनहरे पल। उन दिनों के वीकेंड मुझे आज भी याद हैं जब मैं अपने पापा के साथ लगभग हर हफ्ते पटरातू से भुरकुंडा होते हुए रामगढ़ जाता था। कभी टेक्कर (शेयर जीप) से, कभी पब्लिक बस से और नहीं तो किसी सफेद कार में बैठ जाते — जो पापा के किसी दोस्त की होती थी। हमारा रास्ता लंबा था जिसके किनारे हल्की-हल्की कोयले की धूल उड़ती रहती थी और गाड़ी में बैठे यात्री एक-दूसरे से ऐसे बात करते थे जैसे सब पुराने पहचान वाले हों — नाम किसी को याद न हो, पर चेहरा सबको याद था।  



भुरकुंडा में मेरे एक चाचा जी रहते थे। वो भुरकुंडा ग्लास फैक्ट्री में काम करते थे। जो अक्सर सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने एक सादगी भरे इंसान के रूप नज़र आते थे। जब कभी घर आते तो फैक्ट्री की बातें सुनाते और काँच की बनी छोटी-छोटी चीजें लाते — जो मुझे बचपन में किसी जादू से कम नहीं लगती थीं।   

पापा का जॉब पतरातु थर्मल पावर स्टेशन (प्लांट) के टेलीफोन एक्सचेंज में था। एकदम ठंडी AC वाली मशीनों से भरी वो जगह उस वक्त की “कम्युनिकेशन लाइफलाइन” थी। उस समय हर कॉल अपने-आप कनेक्ट नहीं होती थी। ऑपरेटर को मोटे स्विचबोर्ड में तार लगाकर कॉल कनेक्ट करनी पड़ती थी। हर बार डायल घुमाने पर ट्रिंग-ट्रिंग की आवाज गूंजती जैसे प्लांट की धड़कन चल रही हो। पापा और उनकी टीम वही धड़कन चलाते थे — इंजीनियरों और कंट्रोल रूमों के बीच एक इनविजिबल ब्रिज बनाकर। उन्होंने कभी आवाज़ ऊँची नहीं की पर उनकी मेहनत की आवाज़ वहां के हर टेलीफोन की घंटी में थी।  

भुरकुंडा की ग्लास फैक्ट्री की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं थी। सन 1952 में इसे गुरूशरणलाल भदानी नाम के एक पुराने व्यापारी ने शुरू किया था। कोयला, रेत और खनिज से भरपूर इस ज़मीन पर उन्होंने ऐसी फैक्ट्री बनाई जो दिन-रात जलती भट्ठियों से चमकदार शीशे बनाती।  

1957 में ये फैक्ट्री जापान की कंपनी “आसाही ग्लास” के हाथों में चली गई और इसका नाम पड़ा इंडो आसाही ग्लास कंपनी लिमिटेड (IAG)। जापानी टेक्नोलॉजी के साथ भुरकुंडा का चेहरा ही बदल गया। मशीनें तालमेल में गुनगुनातीं, मज़दूर नयी ऊर्जा के साथ काम करते और पूरे इलाके में एक रौनक नज़र आती थी।  

1987 तक यहाँ एक आधुनिक प्लांट बन चुका था — एशिया के सबसे बेहतरीन ग्लास निर्माताओं में से एक। मेरे चाचा और बाकी लोग उस फैक्ट्री को सिर्फ रोज़ी-रोटी की जगह नहीं बल्कि मंदिर मानते थे। सुबह और शाम की सायरन की आवाज जैसे उनके जीवन का संगीत बन गई थी।  

लेकिन हर कहानी की एक परछाईं होती है। 1999 में जब घाटा बढ़ा तो जापानी मालिकों ने फैक्ट्री दिल्ली के खे़मका ब्रदर्स को बेच दी। और वहाँ से गिरावट शुरू हुई। काँच की चमक फीकी पड़ने लगी, मशीनें शोर से ज़्यादा कराहने लगीं।  

वो दौर किसी मोबाइल या डिजिटल सिस्टम का नहीं था पर हर घंटी के पीछे एक नया उत्साह छुपा था। 2004 में उन दिनों जब मैं इंग्लैंड में पढ़ रहा था तब मैंने न्यूज में सुना कि — “भुरकुंडा की भट्ठियाँ ठंडी पड़ गईं।” चाचा जी ने वॉलंटरी रिटायरमेंट पहले ही ले ली थी पर फैक्ट्री बंद होने का दुख उन्हें ज़्यादा था। 1300 से ज़्यादा मज़दूरों की नौकरी चली गई। वो टाऊन जो रातों को भट्ठी की लौ से चमकता था, अब अँधेरा ओढ़े बैठा था।

👨‍🏫 सुदेश कुमार 

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